Friday 28 October 2016

*इस बार दिवाली सीमा पर*



इस बार दिवाली सीमा पर,
है खड़ा  मवाली  सीमा पर।
इसको  अब  सीधा करना है,
इसको अब  नहीं सुधरना है।
इनके  मुण्डों  को  काट-काट,
कचरे के संग फिर लगा आग।
गिन-गिन कर बदला लेना है,
हम  कूँच  करेंगे  सीमा  पर।
ये  पाक  नहीं,  ना पाकी  है,
चीनी, मिसरी-सा  साथी है।
दोनों की  नीयत  साफ नहीं,
अब करना इनको माफ नहीं।
इनकी  औकात   बताने  को,
हम, चलो  चलेंगे सीमा पर।
दो-चार  लकीरें   नक्शे  की,
बस  हमको  जरा बदलना है।
भूगोल  बदलना   है   हमको,
इतिहास स्वयं लिख जाना है।
आतातायी का  कर  विनाश,
फिर धूम-धड़ाका सीमा पर।
...आनन्द विश्वास 

Sunday 16 October 2016

*अब सरदी की हवा चली है*

अब सरदी की हवा चली है,  
गरमी अपने  गाँव  चली है।
कहीं रजाई या फिर कम्बल,
और कहीं है  टोपा  सम्बल।
स्वेटर  कोट  सभी  हैं  लादे,
लड़ें  ठंड   से   लिए  इरादे।
सरदी आई,  सरदी  आई,
होती  चर्चा  गली-गली  है।
कम्बल का कद बौना लगता,
हीटर  एक खिलौना लगता।
कोहरे ने  कोहराम  मचाया,
पारा   गिरकर  नीचे आया।
शिमले से  तो  तोबा-तोबा,
अब दिल्ली की शाम भली है
सूरज की  भी  हालत खस्ता,
गया   बाँधकर  बोरी-बस्ता।
पता  नहीं, कब तक  आएगा,
सबकी  ठंड  मिटा   पाएगा।
सूरज   आए   ठंड  भगाए,
सबको लगती धूप भली है।
गरमी  हो तो, सरदी भाती,
सरदी  हो तो, गरमी भाती।
और कभी पागल मनवा को,
मस्त हवा  बरसाती  भाती।
चाबी  है  ऊपर  वाले  पर,
अपनी मरजी कहाँ चली है।
-आनन्द विश्वास